इस क्लास में छात्र ढूंढ पाएं तो बताएं

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इस क्लास में छात्र ढूंढ पाएं तो बताएंमाध्यमिक स्कूल

कम्यूनिटी जर्नलिस्ट- आलोक मिश्रा

कानपुर। एक ओर सरकार अरबों रुपए सरकारी स्कूलों में शिक्षा पर खर्च करती है, दूसरी ओर सरकारी स्कूलों की कक्षाओं में कुछ इस तरह कंडे भरे जा रहे हैं। प्रदेश के सैकड़ों स्कूलों में कमोवेश ये ही हाल हैं। कहीं शौचालय टूटे पड़े हैं तो कहीं स्कूल में जानवर बांधे जा रहे हैं। कानपुर के एक गाँव में बने इस बेसिक और माध्यमिक स्कूल की दशा प्रदेश की लचर शिक्षा व्यवस्था को बयां करने के लिए काफी है।

केंद्र और राज्य सरकारें गरीब बच्चों को फ्री शिक्षा मिले इसके लिए हर साल अरबों रुपए खर्च करती हैं। छात्रों को नि:शुल्क किताबें, ड्रेस मुहैया कराई जाती हैं। शिक्षकों के वेतन में भी हर वर्ष अरबों रुपए खर्च होते हैं। इसके बावजूद भी सरकारी स्कूलों में ये आलम है कि छात्र तो हैं लेकिन उनकी कक्षाओं में कंडे भरे हैं।

कानपुर नगर के शिवराजपुर ब्लॉक के टौडाकापुर में प्राथमिक और पूर्व माध्यमिक स्कूल बनाए गए हैं। इन स्कूलों के कमरों में बच्चों के बैठने की जगह पर कंडे पाथे जाते हैं। दरवाजे टूटे हुए हैं। कमरे के अंदर कूड़ा गाड़ियां और ट्रालियां रखी हैं। कहने को तो इन दोनों स्कूलों को समय पर खोला जाता है, विद्यार्थी भी आते हैं मगर इन कमरों में वे बैठते कैसे हैं, यह बता पाना मुश्किल है। एक कमरे में सफाई कर्मचारी की गाड़ी रखी हुई है। दूसरे में गाँव के कुछ लोगों का कब्जा है। कमरे में खटिया पड़ी है। एक अन्य कमरा भी दिखा जिसमें दरवाजा था मगर उसे देखकर लगता है कि उसका दरवाजा वर्षों से नहीं खोला गया है।

गाँव कनेक्शन ने बलरामपुर, सीतापुर, बाराबंकी, उन्नाव समेत सात जिलों में जब स्कूलों की हालत की पड़ताल की तो कई स्कूलों में शौचालय तो मिले पर उनके गेट पर ताला लटका था। उन्नाव के कई प्राथमिक स्कूलों में पानी की कोई व्यवस्था नहीं थी और जिन स्कूलों में भी वहां निकासी की व्यवस्था न होने के कारण प्रांगण में ही पानी भरा मिला। बलरामपुर के कई स्कूलों में प्रांगण में मवेशियों को बांधा जाता है।

साहब इसे आप स्कूल कहते हैं। हमको तो ये कहीं से स्कूल नहीं लगता क्योंकि प्राइमरी के प्रिंसिपल गंगा सागर कहने को तो पड़ोस के ही गौरी गाँव में रहते हैं लेकिन स्कूल आते ही नहीं। हम लोगों को वे 26 जनवरी या 15 अगस्त पर ही दिखते हैं। हां, कभी कुछ वितरण किया जाता है तो उस दिन भी दिखते हैं।
विजय शंकर (53 वर्ष), ग्रामीण, टौडाकापुर

गाँव का ही अनुराग मिश्र (12 वर्ष) बताते हैं, “स्कूल में पढ़ाई तो होती नहीं है। होगी भी तो कैसे? माध्यमिक की प्रिंसिपल मीरा कमल रोज 11 बजे आती हैं और 12 बजे चली जाती हैं। साथ में अखबार लाती हैं। बच्चे दिनभर घूमा करते हैं।”

अगर बात करें प्राथमिक विद्यालय की तो प्रत्येक वर्ष सरकार की और से विद्यालय के रखरखाव के लिए धन जारी किया जाता है। इसका उपयोग ग्राम प्रधान और प्राचार्य के विवेकाधिकार से होता है। मगर यहां विकास नाम की कोई चीज नजर नहीं आती। स्कूल परिसर की चहारदीवारी टूटी हुई है। यहां के शौचालय में मधुमक्खियों और बरैया ने छत्ते बना रखे हैं। देखने से लगता है कि महीनों से इसका उपयोग नहीं किया गया है। भोजन कक्ष का दरवाजा टूटा पड़ा है। उसके ऊपर छत भी नहीं है। अंदर इतनी घास जमा है कि उसमें खाना बनाना तो दूर पलभर के लिए खड़ा होना दूभर है।

This article has been made possible because of financial support from Independent and Public-Spirited Media Foundation (www.ipsmf.org).

      

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